करते रहे तमन्ना दिल-ओ-जान से मोहोब्बत की,
और मुफ़्त में ही नफ़रतों के पहाड़ नसीब होते रहे…
मरते रहे लाख हर एक अदा पे उसकी,
और वो थे दिल्लगी दिल से मेरे करते रहे…
औरों से कहूँ क्या क्या उनसे शिकायत करूँ,
मेरे अपने ही बिला-वज़ह मेरी बेबसी पे हँसते रहे…
मैख़ाने तो पिए कई रोज़ उसकी याद में,
रात ख़ास है आज अश्क़-ए-खूँ गले से जो उतरते रहे…
फ़िर होश न दिलाइये जो हो जायें खुद से ख़फ़ा,
सोचिये बस की अब हम ख़ुद पे ही मरते रहे…
तस्वीर-ए-ताश पे उसकी ता-उम्र लगाते चले बाज़ी-ए-दिल,
‘हम्द’ असद का तक़ाज़ा यहाँ बाज़ी-ए-रूह नाम-ए-क़ज़ा रखते रहे….—-सुधीर कुमार पाल ‘हम्द’
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