ज़मीन-ओ-बंज़र ना खिला तू ग़ुल इश्क़ के,
ख़ाक-ए-मंज़र बस इसका निशां होगा…
रश्क़ में कैद है इस दिल का पंछी,
आफ़ताब ना अब इसका जहां होगा…
रौशनी मरमरी है नाकाफ़ी हुस्न की तेरी,
चाँद भी अब तो इस रात में गर्त होगा…
देखा ज़माना बोहोत सजाये सेहरा-ए-इश्क़ हमने,
सुपुर्द-ए-ख़ाक ही अब तो अक्स ये दफ़्न होगा…
ना अब रही कोई उम्मीद मुझे खुद से ए ‘हम्द’,
वीरानों में ही अब तो ये दीवाना फ़नाह होगा….
—-सुधीर कुमार पाल ‘हम्द’